Bhart ka apna puja bazar

Vinita Puja Mart

सोहराय : प्रकृति-प्रेम का उत्‍सव

 

सोहराय पर्व झारखंड, बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों द्वारा बड़े धूमधाम से मनाया जाने वाला एक प्रमुख पर्व है। यह मुख्यतः संथाल, मुंडा, हो, उरांव और अन्य आदिवासी समुदायों द्वारा मनाया जाता है। इस पर्व का केंद्रबिंदु कृषि, पशुपालन, और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता जताना होता है। सोहराय पर्व विशेष रूप से, संथाल आदिवासी समाज का कृषि और पशुधन से जुड़ा एक अत्यंत महत्वपूर्ण त्योहार है, जिसमें उनके जीवन, संस्कृति और धार्मिक विश्वासों का गहरा समावेश होता है।

सोहराय पर्व आमतौर पर कार्तिक महीने (अक्टूबर-नवम्‍बर) के दौरान मनाया जाता है, जब धान की फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। यह पर्व पांच दिनों तक चलता है, और प्रत्येक दिन के लिए विशेष अनुष्ठान और रीति-रिवाज निर्धारित होते हैं। यह त्योहार विशेष रूप से नई फसल और पशुओं की पूजा से जुड़ा होता है, और इसका उद्देश्य प्रकृति के प्रति आदर और धन्यवाद ज्ञापन करना होता है।

 

सोहराई के पीछे लोक कथा

चम्पागढ़, एक समृद्ध राज्य जहाँ किस्कू राजा ने शासन किया था। उस राज्य के लोग शांतिपूर्ण और खुशहाल जीवन जीते थे क्योंकि राजा का व्यवहार बहुत विनम्र था। वे सभी उसे अपना भगवान मानते थे। राजा का नाम दिसोम पति राजा था। किस्कू राजा को फूल लगाना बहुत पसंद था और वह उनकी देखभाल भी करता था, इसलिए वह अपने बगीचे के हर फूल का नाम जानता था।

राजा की एक सुंदर रानी थी, लेकिन वह एक अच्छी महिला नहीं थी। उस रानी का एक काले जादू वाले आदमी (बोंगा जावे) के साथ संबंध था। जंगल वह जगह थी जहाँ वे मिलते थे। और वह बोंगा जावे हमेशा सांप बनकर रानी के सामने आता था। रानी जब भी मिलने जाती तो अलग-अलग रंग की साड़ियां पहनती थी। जिस रंग की रानी की साड़ी होती थी, उसी रंग का सांप रानी के सामने आता था। उस सांप का नाम था करीरंगिंग बिंग।

एक दिन राजा शिकार पर निकला और वहां उसने एक सांप को मार डाला, वह सांप कोई और नहीं बल्कि करीरंगिंग बिंग था। जब रानी को इस बात का पता चला तो रानी ने गुस्से से आंखें घुमाई और करीरंगिंग की मौत का बदला लेने का फैसला किया। इसके लिए रानी ने सांप की हड्डी निकाली और उसकी माला बनाई और कुछ हड्डियों को बगीचे में गाड़ दिया जिससे एक सुंदर फूल निकला। उसने उसका नाम करीरंगिंग फूल रखा।

कुछ दिनों के बाद रानी ने एक बड़ी बैठक की घोषणा की जिसमें उसके राज्य और आस-पास के राज्य के सभी लोग आए थे। और उसने बगीचे के सभी फूलों के नाम बताने के लिए एक प्रश्न पूछा, अगर वह सही नाम बताता तो फूल मुरझा जाते और अगर जवाब नहीं देता तो वह मर जाता। इसलिए राजा ने फूलों के नाम बताने शुरू किए और फूल मुरझा गए। लेकिन रानी के अलावा कोई भी करीरंगिंग का नाम नहीं जानता था। राजा ने उस एक को छोड़कर सभी फूलों का नाम रखा, इसलिए उसने रानी से उसका नाम खोजने के लिए छह दिन का समय मांगा। राजा हर जगह घूमता रहा लेकिन उसका नाम नहीं मिला।

पहले दिन राजा और उसकी प्रजा ने गाँव में एक बड़ी पूजा का आयोजन किया जहाँ उन्होंने राजा की अच्छी बुद्धि और लंबी उम्र के लिए अपने भगवान (पिलचु हदम, पिलचु बूढ़ी, मारंग बुरु) की पूजा की। दूसरे दिन राजा ने अपनी प्रजा से कहा कि वे अपने घरों में उसकी पूजा करें। तीसरे दिन राजा ने गायों से अपने द्वारा किए गए सभी बुरे कामों के लिए क्षमा मांगी और फिर सभी गायों को उनकी पूजा के लिए सजाया। धीरे-धीरे दिन बीतते गए लेकिन किसी को जवाब नहीं मिला। इसलिए राजा ने अपने बाकी दिन खुशी-खुशी नाच-गाकर बिताने का फैसला किया। चौथे दिन राजा ने अपने सभी रिश्तेदारों को आखिरी बार मिलने के लिए आमंत्रित किया। राजा की एक बड़ी बहन थी जिसका नाम लुखी था। जब उसने पूरी बात सुनी तो वह अपने प्रिय भाई से मिलने के लिए जल्दी में आ रही थी और बीच रास्ते में थक गई, इसलिए वह एक पेड़ के नीचे बैठ गई। पेड़ के ऊपर एक कौवे का घोंसला था। वहां दो चूजे अपना भोजन मांग रहे थे, कौवे ने उत्तर दिया कि चंपागढ़ के राजा मरने वाले हैं और उन्हें विश्वास दिलाओ कि वे राजा को भोजन के रूप में खाएंगे और उन्हें रानी के प्रश्न के पीछे की पूरी कहानी बताई। इसके अलावा, कौवे ने अपने चूजों को उस फूल का नाम बताया। सौभाग्य से, लुखी ने उनकी पूरी बातचीत सुन ली और सुनते ही वह राजा के पास भागी। जहां लुखी ने रानी के प्रश्न के पीछे की पूरी कहानी बताई और उन्हें फूल का नाम भी बताया। जब राजा को फूल के नाम के बारे में पता चला, तो वह गया और रानी को फूल का नाम बताया। जैसे ही उसने नाम रखा, फूल मुरझा गया। और जब पूरे राज्य को रानी की बुरी नीयत के बारे में पता चला, तो उन्होंने रानी को मार डाला। उसके बाद, राज्य में खुशी की लहर दौड़ गई। राजा की जीत का जश्न मनाने के लिए सभी लोग नाचने और गाने लगे। उस दिन को सोहराय नाम दिया गया

सोहराय पर्व के पांच दिन

सोहराय पर्व पाँच दिनों तक मनाया जाता है  और प्रत्येक दिन का एक विशेष महत्व और अनुष्ठान होता है, जोकि आदिवासी समुदाय की जीवनशैली और धार्मिक विश्वासों को विशेष रूप से दर्शाते हैं।

उरु कटना (पहला दिन): सोहराय पर्व का पहला दिन ‘उरु कटना’ या ‘गर्भज’ के रूप में जाना जाता है। इस दिन घर और गोशाला की साफ-सफाई की जाती है। घर के सभी लोग मिलकर पूरे गांव में सफाई करते हैं और अपने पशुओं को सजाते हैं। इस दिन गांव के मुख्य पुजारी या बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा फसलों और पशुओं की समृद्धि के लिए पूजा की जाती है।

बुकरुब एकादशी (दूसरा दिन): दूसरे दिन को ‘बुकरुब’ कहा जाता है। इस दिन घर-घर जाकर एक विशेष प्रकार का अनुष्ठान किया जाता है, जिसे पशु पूजा कहा जाता है। इस पूजा में मुख्य रूप से बैलों और गायों की पूजा की जाती है, जो कृषि में मुख्य योगदान देते हैं। पशुओं को हल्दी, सिंदूर और फूलों से सजाया जाता है, और उनके माथे पर तिलक लगाया जाता है।

लागा (तीसरा दिन): तीसरा दिन ‘लागा’ कहलाता है। इस दिन पशुओं की सजावट के बाद गांव के सभी लोग मिलकर सामूहिक भोज करते हैं। यह दिन पशुओं और खेती-बाड़ी के प्रति कृतज्ञता का दिन होता है। इस दिन महिलाएं और पुरुष परंपरागत नृत्य और गीत प्रस्तुत करते हैं। नृत्य और गीतों में संथाली जीवन, प्रकृति, प्रेम और संघर्ष के विविध पहलुओं का वर्णन होता है।

जोहर (चौथा दिन): चौथा दिन जोहरया हाथी पूजा के नाम से जाना जाता है। इस दिन गांव के बुजुर्ग और मुख्य पुजारी हाथी की पूजा करते हैं। हाथी आदिवासी समुदाय के लिए शक्ति और सामर्थ्य का प्रतीक होता है। इस दिन भी सामूहिक नृत्य और गीतों का आयोजन होता है, जिसमें गांव के सभी लोग शामिल होते हैं।

पुरनी (पांचवां दिन): अंतिम दिन को ‘पुरनी’ कहा जाता है। इस दिन सभी ग्रामीण एकत्रित होकर पशु और फसलों के साथ जुलूस निकालते हैं और ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। इसके बाद गांव में सामूहिक भोज और नृत्य का आयोजन किया जाता है। लोग आपस में मिलकर खुशियां बांटते हैं और पर्व का समापन होता है।

 

सोहराय पर्व में मुख्य रूप से कृषि और पशुओं की पूजा की जाती है। आदिवासी समुदाय का जीवन कृषि और पशुपालन पर निर्भर होता है, इसलिए वे इन दोनों को अपनी जीविका का आधार मानते हैं। पर्व के दौरान मुख्य पूजा पशुधन (विशेष रूप से गाय और बैल) की होती है, जिन्हें कृषि में अमूल्य सहयोगी माना जाता है। इसके साथ ही, पर्व में प्रकृति और धरती माता की पूजा भी की जाती है, जो फसल की समृद्धि और खेती के लिए आवश्यक होती है। साथ ही साथ, सोहराय पर्व में आदिवासी समुदाय अपने पारंपरिक देवताओं की भी पूजा करते हैं। इन देवताओं में विशेष रूप से ‘धरती माई’ और ‘बोंगा’ का स्थान प्रमुख है। ‘धरती माई’ को पृथ्वी की देवी माना जाता है, जिनके बिना जीवन संभव नहीं है। ‘बोंगा’ को विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों और तत्वों का प्रतीक माना जाता है, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करते हैं।

 

सोहराय पर्व का सांस्कृतिक महत्व अत्यधिक गहरा और विविध है। यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि आदिवासी समुदाय की सामूहिकता, एकता, और उनके सांस्कृतिक मूल्यों को भी प्रदर्शित करता है। यह पर्व आदिवासी समाज की सांस्कृतिक धरोहर का अभिन्न हिस्सा है, जिसमें उनकी परंपराओं, रीति-रिवाजों, और जीवनशैली का प्रतीकात्मक रूप देखने को मिलता है।

सामूहिकता और एकता: सोहराय पर्व का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह समाज को एकजुट करता है। पूरे गांव के लोग एकसाथ मिलकर इस पर्व को मनाते हैं, जिससे सामाजिक एकता और भाईचारा बढ़ता है। यह पर्व समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की दूरी को खत्म करता है और सभी को एक समान रूप से पर्व मनाने का अवसर प्रदान करता है।

नृत्य और संगीत: इस पर्व के दौरान पारंपरिक नृत्य और संगीत का आयोजन होता है, जो आदिवासी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। विशेष रूप से ‘नगाड़ा’ और ‘मांदर’ जैसे पारंपरिक वाद्य यंत्रों का उपयोग किया जाता है। सोहराय नृत्य में महिलाएं और पुरुष पारंपरिक वस्त्र पहनकर सामूहिक रूप से नृत्य करते हैं। नृत्य के माध्यम से आदिवासी समाज अपनी खुशियों, संघर्षों, और प्रकृति के साथ अपने संबंधों का वर्णन करता है।

कला और शिल्प: सोहराय पर्व के दौरान आदिवासी समुदाय अपने घरों को रंग-बिरंगी कलाकृतियों से सजाते हैं। दीवारों पर मिट्टी और प्राकृतिक रंगों से सुंदर चित्र बनाए जाते हैं, जिन्हें ‘सोहराय कला’ के नाम से जाना जाता है। यह कला आदिवासी जीवन, प्रकृति, और उनके धार्मिक विश्वासों को दर्शाती है।

पारंपरिक व्यंजन: इस पर्व में पारंपरिक भोजन का भी विशेष महत्व होता है। सोहराय पर्व के दौरान विशेष प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं, जिनमें ‘धुस्का’, ‘पीठा’, ‘हांडिया’ (स्थानीय पेय) का विशेष स्थान होता है। यह पर्व न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का भी प्रतीक है।

 

ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व

सोहराय पर्व की जड़ें आदिवासी समाज के धार्मिक और ऐतिहासिक विश्वासों में गहराई से निहित हैं। यह पर्व हजारों वर्षों से मनाया जा रहा है, और इसे पृथ्वी, प्रकृति, और जीवन की उत्पत्ति के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। आदिवासी समाज का मानना है कि इस पर्व के माध्यम से वे अपने पूर्वजों और देवताओं को धन्यवाद देते हैं, जिन्होंने उन्हें जीवन और संसाधनों का उपहार दिया है। सोहराय पर्व का ऐतिहासिक और धार्मिक पृष्ठभूमि आदिवासी समाज की समृद्ध संस्कृति, परंपरा, और प्रकृति के प्रति उनके गहरे सम्मान को दर्शाती है। फसल कटाई के बाद मनाया जाने वाला यह पर्व धरती माता, पशुधन, और कृषि से जुड़े जीवन को श्रद्धांजलि देने का पर्व है। यह पर्व आदिवासी समाज की समृद्ध धार्मिक आस्था और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित और प्रसारित करने का माध्यम है।

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