देव प्रतिमाओं के निर्माण : एक सकारात्मक अवधारणा
सनातन धर्म में सदियों से देवी-देवताओं के पूजा आराधना में मूर्तियों का निर्माण, प्राण-प्रतिष्ठा और उसका विसर्जन की आवधारणा रही है। सदियों पुराने मंदिर भी इसके साक्षी हैं। वैदिक काल में भी यज्ञों में भी धातु और मिट्टी की प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है। पूजा व आराधना में पूर्णतया प्राकृतिक वस्तुओं का उपयोग होता और वह वापस उसी प्रकृति में निमज्जित हो जाता था। विशेष कर जब हम देव प्रतिामाओं की बात करते हैं तो यह प्रश्न सामने होता है कि देव प्रतिमा का निर्माण कैसे हो, कब हो, उसका आकार इत्यादि। यह इससे भलीभांति परिचीत हैं कि प्रत्येक धातु या पदार्थ का अपना एक गुण होता है जो अपने सीमा में आने वाले हरेक चल व अचल पदार्थों पर अपना एक साकारात्मक या नाकारात्मक प्रभाव को आरोपित करता है। यहां हम इस विषय पर चर्चा करेंगे के विशेष अवसरों पर जो हम देव प्रतिमाओं का निर्माण करते हैं, उनकी पूजा करते है या अपने घरों में स्थापित करते हैं वह किस पदार्थ से निर्मित है उसका भी हमारे पूजा पद्धिति और जीवन पर प्रभाव होता है।
पीतल कांस्य या तांबा से निर्मित प्रतिमायें
“कांस्ये ताम्रयुते वापि स्थापयेत् परमं हरिम्।
या मूर्तिः कृतपुण्या स्यात् तद्विष्णोः परमं पदम्॥”
अर्थ:
इस श्लोक में कहा गया है कि कांस्य या ताम्र (ताँबा) मिश्रित धातु में भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित करने से परम पुण्य की प्राप्ति होती है और यह परम पद (मोक्ष) की ओर ले जाती है। इसमें धातु का महत्व दर्शाते हुए यह भी बताया गया है कि इन प्रतिमाओं से विशेष आध्यात्मिक ऊर्जा और सकारात्मकता का संचार होता है।
पीतल के संदर्भ में व्याख्या:
स्कंद पुराण और अग्नि पुराण जैसे ग्रंथों में विशेषकर धातु की प्रतिमाओं को पवित्र और शुभ माना गया है, जिनमें पीतल भी शामिल है। पीतल, जो ताम्र और जस्ता का मिश्रण है, को स्थायित्व और पवित्रता के कारण धार्मिक अनुष्ठानों और पूजा में अत्यधिक मान्यता दी जाती है।
धार्मिक मान्यताओं में पीतल की मूर्तियाँ विशेष रूप से शुभ और पूजनीय मानी जाती हैं, और इसके पीछे कई आध्यात्मिक, पौराणिक और सांस्कृतिक कारण हैं। विशेष कर करके पीतल की देव मूर्तियों को इन देवताओं की स्थायी और मजबूत उपस्थिति का प्रतीक माना जाता है, जो परिवार की सुख-शांति और समृद्धि की कामना में सहायक होती हैं।
पीतल, तांबा और जस्ता ये ऐसे धातु हैं जोकि धार्मिक दृष्टि से बहुत ही पवित्र धातु मानी जाती है। तांबे में शुद्धता और जिंक में आध्यात्मिक ऊर्जा के गुण होते हैं। तांबे और जिंक के मिश्रण से बनी पीतल की प्रतिमाएं सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती हैं, जिससे पूजा स्थलों में शांति और पवित्रता बनी रहती है। तांबे और जिंक की ऊर्जा-संवेदनशील विशेषताओं के कारण, पीतल में उच्च ऊर्जा को आकर्षित करने और उसे बनाए रखने की क्षमता होती है। पूजा स्थल में पीतल की मूर्तियों का होना ऊर्जा के संरक्षण और सकारात्मकता का विस्तार करने में सहायक होता है, जिससे भक्तों को मानसिक शांति और आध्यात्मिक संतोष प्राप्त होता है।
पीतल आयुर्वेद और वास्तु शास्त्र में भी स्वास्थ्य और आध्यात्मिकता को बढ़ाने वाली धातु मानी गई है। धार्मिक मान्यताओं में इसे स्वास्थ और सकारात्मक ऊर्जा के लिए उपयुक्त बताया गया है। पीतल की मूर्तियों का घर में होना सकारात्मक ऊर्जा और समृद्धि का संचार करता है। पीतल की मूर्तियाँ दीर्घकालिक होती हैं और समय के साथ खराब नहीं होतीं। यह स्थायित्व और स्थिरता का प्रतीक मानी जाती हैं, जो धार्मिक दृष्टिकोण से विश्वास और भक्ति का भी प्रतीक है। यह दर्शाता है कि हमारे देवी-देवता भी हमारे जीवन में स्थिर और अचल रूप से उपस्थित रहते हैं।
पीतल एक पुन: उपयोग योग्य धातु है और इसे पर्यावरण के अनुकूल माना जाता है। इसे पुन: चक्रित किया जा सकता है, जिससे पर्यावरण को नुकसान नहीं होता। पूजा-पाठ के बाद, पीतल की मूर्तियों का विसर्जन या पुन: उपयोग आसान होता है, जिससे यह धार्मिक दृष्टि से पर्यावरण-सम्मत होती हैं। तांबे और पीतल को शक्ति, साहस और ऊर्जा का प्रतीक माना गया है। पीतल की मूर्तियों का धार्मिक रूप से उपयोग करने से भक्तों में विश्वास और दृढ़ता का संचार होता है। इससे भक्तों को यह विश्वास होता है कि देवी-देवता उनकी रक्षा करते हैं और उनका मार्गदर्शन करते हैं। पीतल की प्रतिमाएँ पवित्र मानी जाती हैं और इसका वर्णन विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। पूजा-अर्चना में पीतल की मूर्तियों का उपयोग करना शुभ और धार्मिक रूप से स्वीकृत माना जाता है।
इन सभी कारणों के आधार पर, पीतल की मूर्तियाँ धार्मिक दृष्टि से अत्यंत शुभ, सकारात्मक, और पूजा के लिए उपयुक्त मानी गई हैं। यह न केवल एक भौतिक वस्तु है बल्कि एक माध्यम है जिससे भक्त अपने ईश्वर के प्रति विश्वास, भक्ति, और श्रद्धा व्यक्त कर सकते हैं।
मिट्टी या मृदा से निर्मित प्रतिमायें
शास्त्रों में मिट्टी की मूर्तियों को पवित्र और प्राकृतिक स्वरूप माना गया है, और इन्हें देवताओं की कृपा प्राप्त करने का एक सरल और पवित्र साधन बताया गया है। मिट्टी से बनी प्रतिमाओं का उल्लेख गरुड़ पुराण, अग्नि पुराण और विष्णु धर्मसूत्र जैसे ग्रंथों में मिलता है, जिनमें प्राकृतिक और पर्यावरण के अनुकूल सामग्रियों को धार्मिक कार्यों में उपयोग करने को कहा गया है।
एक श्लोक जो मिट्टी की मूर्ति निर्माण का महत्व दर्शाता है:
“मृण्मयीं मूर्तिमास्थाय पूजयेच्च विशेषतः।
मृत्तिकासु सदा देवानां वासो भवति निश्चितम्॥”
अर्थ:
यह श्लोक कहता है कि मिट्टी की मूर्ति में विशेष रूप से पूजा की जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि मिट्टी में देवताओं का वास होता है। मिट्टी प्राकृतिक, पवित्र और निर्मल मानी जाती है, इसलिए मिट्टी से बनी मूर्तियाँ सकारात्मक ऊर्जा और आध्यात्मिकता को आकर्षित करती हैं।
धार्मिक महत्व:
मिट्टी को पांच तत्वों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) में से एक और विशेष रूप से “पृथ्वी तत्व” का प्रतीक माना गया है, जो स्थायित्व, शांति और संतुलन का प्रतीक है। मिट्टी की मूर्तियाँ पर्यावरण के अनुकूल होने के साथ-साथ पुनः मिट्टी में विलीन होकर जीवनचक्र को संतुलित करती हैं, जो हिंदू धर्म में पुनर्जन्म और पुनर्नवीनीकरण का प्रतीक है।
मिट्टी स्थानीय तत्व है, जो समाज के विभिन्न वर्गों और ग्रामीण जीवन से जुड़ा हुआ है। मिट्टी की मूर्तियों का उपयोग समाज को अपनी संस्कृति और परंपराओं के साथ जोड़ता है। धार्मिक दृष्टि से यह हमारी संस्कृति को पुनर्जीवित करने का एक माध्यम है, जिससे हम अपनी मूल पहचान से जुड़े रहते हैं।
मिट्टी को हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकता माना गया है, और इससे बनी प्रतिमाओं का पूजन हमारे देवी-देवताओं के प्रति आदर और श्रद्धा को दर्शाता है। इससे भक्तों को यह अनुभव होता है कि वह अपने आराध्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित हैं और प्रकृति के मूल तत्वों का आदर कर रहे हैं। हिन्दू धर्म में गणेशोत्सव, दुर्गा पूजा, सरस्वती पूजा आदि में मिट्टी की प्रतिमाओं का विशेष महत्व होता है। धार्मिक परंपराओं में यह मान्यता है कि मिट्टी से बनी मूर्ति में देवता का वास होता है और इसका उपयोग करने से भक्तों को अधिक पुण्य की प्राप्ति होती है। मिट्टी का स्पर्श और उसकी बनावट भक्तों को धरती से जोड़ती है, जिससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। यह आस्था और भक्ति को और मजबूत बनाता है और भक्तों को आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है।
मिट्टी की प्रतिमाओं का धार्मिक उपयोग भारतीय संस्कृति में अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है। यह बहुत ही प्राचीन परम्परा है, जो अभीतक अपनी विशेषता को जीवंत रखा है। इसका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व कई दृष्टिकोणों से समझा जा सकता है, जो इसे पूजा-पाठ और त्योहारों में खास बनाता है।
मिट्टी को प्रकृति का सबसे शुद्ध और पवित्र रूप माना गया है। धार्मिक मान्यताओं में, मिट्टी से बनी प्रतिमाओं का सीधा संबंध धरती माँ से जोड़ा जाता है। मिट्टी की प्रतिमा का उपयोग हमारे जीवन में सादगी, शुद्धता और प्रकृति के प्रति आदरभाव को दर्शाता है। धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि हमारे शरीर और सृष्टि का निर्माण पाँच तत्वों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश – से हुआ है। मिट्टी को इन पंचतत्त्वों में से ‘पृथ्वी तत्व’ का प्रतिनिधि माना गया है। मिट्टी की मूर्तियाँ इन पाँच तत्वों की अभिव्यक्ति करती हैं और प्रतीकात्मक रूप से हमें हमारी सृष्टि के मूल तत्वों से जोड़ती हैं। मिट्टी की मूर्तियाँ आसानी से पानी में घुल जाती हैं और पूरी तरह से प्रकृति में वापस मिल जाती हैं। यह प्रक्रिया जीवन के अस्थायित्व का प्रतीक मानी जाती है और इस बात की शिक्षा देती है कि हर चीज अस्थाई है, जो हमें सदैव यह आभाष करता है कि ज्यादा माया के जाल में न उलझें। विसर्जन के समय मिट्टी की प्रतिमाओं का जल में विलय हमारे सांसारिक जीवन के अंत की ओर संकेत करता है। मिट्टी की मूर्तियाँ सादगी और संतोष का प्रतीक मानी जाती हैं। प्राचीन काल से ही मिट्टी की प्रतिमाएँ हमारे पूर्वजों द्वारा पूजा-पाठ में उपयोग की जाती रही हैं, जिससे यह समझ आता है कि भौतिकता से परे जाकर आस्था, भक्ति और श्रद्धा का मूल्य अधिक है।
मिट्टी प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाती है और पर्यावरण को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुँचाती। विशेष रूप से त्योहारों के दौरान मिट्टी की मूर्तियों का उपयोग पर्यावरण की दृष्टि से भी अनुकूल होता है, क्योंकि यह जल स्रोतों और भूमि को प्रदूषित नहीं करती और धार्मिक दृष्टि से पर्यावरण का संरक्षण भी पुण्य का कार्य माना गया है। मिट्टी की मूर्तियों का उपयोग हमें प्रकृति, संस्कृति, और आध्यात्मिकता के करीब लाता है और समाज में पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ावा देता है।
वर्तमान में प्रचलित प्लास्टर ऑफ पेरिस या अन्य रासायनिक पदार्थों से बनी प्रतिमायें
धार्मिक दृष्टिकोण से प्लास्टर ऑफ पेरिस (POP) से बनी प्रतिमाओं का उपयोग शुभ नहीं माना जाता है, और इसके पीछे कई कारण हैं जो धार्मिक, आध्यात्मिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से जुड़े हैं।
प्लास्टर ऑफ पेरिस एक रासायनिक यौगिक है जो मुख्यतः कैल्शियम सल्फेट हेमिहाइड्रेट से बना होता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान की प्रतिमा में शुद्ध और प्राकृतिक तत्वों का प्रयोग होना चाहिए ताकि वे सकारात्मक ऊर्जा संचारित कर सकें। POP एक कृत्रिम और अप्राकृतिक पदार्थ है, जो पवित्रता के अभाव का संकेत देता है। POP की प्रतिमाएँ पानी में जल्दी नहीं घुलतीं और विसर्जन के समय पर्यावरण प्रदूषण करती हैं। धार्मिक दृष्टि से यह माना जाता है कि भगवान की मूर्तियों को विसर्जन के बाद जल में मिल जाना चाहिए, लेकिन POP मूर्तियाँ पानी में घुलने के बजाय उसे दूषित करती हैं। जल को शुद्धता और देवत्व का प्रतीक माना गया है, इसलिए जल प्रदूषण धार्मिक दृष्टिकोण से भी अनर्थकारी है। धार्मिक परंपराओं में मिट्टी, पत्थर, लकड़ी, और धातु जैसी प्राकृतिक चीजों से बनी मूर्तियाँ ही पूजनीय मानी गई हैं। इन सामग्रियों का उपयोग आध्यात्मिकता, प्राकृतिकता और पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियाँ न तो प्रकृति-संगत होती हैं और न ही उन्हें विधिवत विसर्जित किया जा सकता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार, देवी-देवताओं की प्रतिमाओं में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, जो भक्तों को मानसिक शांति और आध्यात्मिकता प्रदान करती है। POP एक मृत पदार्थ है और इसमें सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने की क्षमता नहीं मानी जाती है, जो पूजा के उद्देश्य को विफल करता है। भारतीय परंपरा में प्रकृति का सम्मान करना और पर्यावरण का संरक्षण करना धार्मिक कर्तव्यों में शामिल है। POP से बनी मूर्तियाँ जल और मृदा को प्रदूषित करती हैं, जिससे जीव-जंतु और पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस कारण धार्मिक दृष्टि से इसे स्वीकार्य नहीं माना गया है।
इसलिए धार्मिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियों का उपयोग पूजा-आराधना या ध्यान हेतु अनुकूल नहीं माना जाता। इसके बजाय, मिट्टी, धातु या लकड़ी से बनी प्रतिमाओं का उपयोग करना पर्यावरण के साथ-साथ धार्मिक शुद्धता का प्रतीक होता है।
इन रासायनिक सामग्रियों का उपयोग करना पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। ऐसे में प्राकृतिक और जैविक सामग्रियों जैसे कि मिट्टी, प्राकृतिक रंग, और जल में घुलनशील सामग्रियों का उपयोग बेहतर और उचित माना जाता है। इनसे पर्यावरण पर कम से कम नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और यह सनातन धर्म के सिद्धांतों, जिसमें प्रकृति का सम्मान और संरक्षण शामिल है, के भी अनुकूल होता है। रासायनिक सामग्रियों के बजाय प्राकृतिक और पर्यावरण-अनुकूल सामग्रियों का उपयोग करना ही उचित होगा, ताकि धार्मिक कृत्यों में भी प्रकृति की रक्षा सुनिश्चित हो सके!