आस्था की अनुपम छटा: महापर्व छठ की पावन परंपराएं और अनूठी मान्यताएं
लोकआस्था का महापर्व छठ पूजा का सार है आस्था, श्रद्धा, और स्वच्छता। इस पर्व के माध्यम से व्यक्ति न केवल अपने और परिवार के लिए सुख-समृद्धि की कामना करता है, बल्कि पर्यावरण और समाज के प्रति भी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है। इस पावन पर्व का महत्व समझते हुए हमें अपने जीवन में श्रद्धा, सकारात्मकता और अनुशासन का संचार करना चाहिए।
छठ पर्व या षष्ठी पूजा चैत्र और कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक सनातन पर्व है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। यह माना जाता है कि यह पर्व भोजपुरी, मगध और मैथिल लोगो का सबसे बड़ा पर्व है, और यह उनकी संस्कृति का एक ऐसा अंग है, जो उनके रग-रग में रचा बसा है। छठ पर्व ही एक मात्र ऐसा पर्व है जो बिहार या पूरे भारतवर्ष में वैदिक काल से मनता चला आ रहा है और अब तो यह यहां के संस्कृति का पर्याय बन चुका हैं। यह पर्व बिहार कि वैदिक आर्य संस्कृति का एक छोटी सी झलक दिखाता हैं। छठ पर्व मुख्यः रुप से हमारे ॠषियो द्वारा लिखी गई ऋग्वेद के सूर्य पूजन, उषा पूजन और आर्य परंपरा के अनुसार मनाया जाता हैं। बिहार मे हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने वाले इस पर्व को इस्लाम सहित अन्य धर्मावलम्बी भी मनाते देखे जाते हैं। धीरे-धीरे यह त्योहार प्रवासी भारतीयों के साथ-साथ विश्वभर में प्रचलित हो गया है। छठ पूजा सूर्य, जल, प्रकृति, वायु तथा छठी मइया को समर्पित है। चैत्र मास के शुक्ल प्रतिपदा, जोकि हिन्दुओं का नववर्ष है उसके छठवें दिन चैत्र छठ पूजा का अनुष्ठान किया जाता है। वहीं कार्तिक मास में मनाये जानेवाला छठ पर्व दीपावली या काली पूजा के छह दिन बाद मनाया जाता है। त्यौहार के अनुष्ठान अतिकठोर हैं और चार दिनों की अवधि में मनाए जाते हैं। इनमें पवित्र स्नान, उपवास और पीने के पानी से दूर रहना पडता है। लंबे समय तक पानी में खड़ा होना, प्रार्थना, प्रसाद तथा अर्घ्य देना शामिल है। परवातिन, जो मुख्य उपासक या व्रती को कहा जाता है, आमतौर पर महिलाएं होती हैं। हालांकि, बड़ी संख्या में पुरुष भी इस व्रत का पालन करते हैं, क्योंकि छठ लिंग-विशिष्ट हेतु त्यौहार नहीं है। छठ महापर्व के व्रत को स्त्री और पुरुष समान रूप से करते हैं।
छठपर्व की शुरुआत ऐतिहासिक स्वरूप कुछ इस प्रकार से है। बिहार राज्य के मुंगेर जिले में माता गंगा के बीचोबीच एक शिलाखंड है, जिस पर एक मंदिर निर्मित है। इस शिलाखंड को सीता मन पत्थर के नाम से जाना जाता है और मंदिर सीताचरण मंदिर के नाम से विख्यात है। ऐसा माना जाता है कि माता सीता ने मुंगेर में छठ पर्व मनाया था। इसके बाद ही छठ महापर्व की शुरुआत हुई। इसीलिए मुंगेर और बेगूसराय में छठ महापर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
बिहार के औरंगाबाद जिले के देव नामक स्थान पर सूर्य मंदिर विराजमान है। एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य अर्थात् देव के जंगलों में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के, त्रिदेव रूपलिए भगवान आदित्य पुत्र हुए, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी।
लोक आस्था का पर्व छठ भारत में सूर्य के उपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है। पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए यह व्रत किया जाता है। छठ व्रत के सम्बन्ध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं; उनमें से एक कथा के अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गये, तब श्री कृष्ण द्वारा बताये जाने पर द्रौपदी ने छठ व्रत का पालन किया। तब उनकी मनोकामनाएँ पूरी हुईं तथा पांडवों को उनका राजपाट वापस मिला।
लोक परम्परा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का सम्बन्ध भाई-बहन का है, चूकि मां षष्ठी ब्रहमा जी की मानस पुत्री भी हैं। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। यह पर्व चार दिनों का है जो भैयादूज के तीसरे दिन से यह आरम्भ होता है। छठ पूजा चार दिवसीय उत्सव है। इसकी शुरुआत चैत्र / कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति चैत्र / कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते।
छठ का प्रथम दिवस : नहाय खाय
छठ पर्व का पहला दिन जिसे ‘नहाय-खाय’ के नाम से जाना जाता है,उसकी शुरुआत चैत्र या कार्तिक महीने के चतुर्थी चैत्र / कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होता है। सर्वप्रथम घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है, तत्पश्चात व्रती अपने नजदीक में स्थित गंगा नदी, अन्य नदी या तालाब या अन्य जलस्रोत जिसमें कृत्रिम उपादान न हो, में जाकर स्नान करते है। लौटते समय वो अपने साथ जल लेकर आते है जिसका उपयोग वे खाना बनाने में करते है । व्रती इस दिन सिर्फ एक बार ही भोजन करते हैं । भोजन में व्रती कद्दू की सब्जी, चना दाल, अरवा चावल का उपयोग करते है। तली हुई पूरियाँ, पराठे आदि वर्जित हैं। मुख्यत: यह भोजन कांसे या मिटटी के बर्तन में पकाया जाता है। भोजन पकाने के लिए आम की लकड़ी और मिटटी के चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है। भोजन बनने के बाद सर्वप्रथम व्रती उसे ग्रहरण करते हैं उसके उपरांत ही परिवार के अन्य सदस्य उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं।
छठ का द्वितीय दिवस : खरना या लोहंडा
छठ पर्व का दूसरा दिन जिसे खरना या लोहंडा के नाम से जाना जाता है, चैत्र या कार्तिक महीने के पंचमी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन व्रती पुरे दिन उपवास में रहते हैं, व्रती अन्न तो दूर सूर्यास्त से पहले पानी की एक बूंद तक ग्रहण नहीं करते है। शाम को चावल गुड़, दुध तथा गन्ने के रस का प्रयोग कर खीर बनाया जाता है। खाना बनाने में नमक और चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है। इन्हीं दो चीजों का सूर्यदेव को नैवैद्य देकर गृह में ‘एकान्त’ करते हैं।
पुन: व्रती प्रसाद ग्रहणकर अपने सभी परिवार जनों एवं मित्रों-रिश्तेदारों को वही ‘खीर-रोटी’ का प्रसाद खिलाते हैं। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ‘खरना’ कहते हैं। इसके बाद अगले 36 घंटों के लिए व्रती निर्जला व्रत रखते है।
छठ का तृतीय दिवस : संध्या अर्घ्य (अस्तगामी सूर्य)
छठ पर्व का तीसरा दिन जिसे संध्या अर्घ्य के नाम से जाना जाता है,चैत्र या कार्तिक शुक्ल षष्ठी के दिन मनाया जाता है। पुरे दिन सभी लोग मिलकर पूजा की तैयारियां करते है। छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसे ठेकुआ, चावल के लड्डू जिसे कचवनिया भी कहा जाता है, बनाया जाता है । पूजा में एक बांस की बनी हुयी टोकरी जिसे दउरा, डाला या डलिया कहा जाता है में पूजा के प्रसाद,फल डालकर देवकारी में रख दिया जाता है। शाम को प्रति सूप में नारियल,पांच प्रकार के फल, और पूजा का अन्य सामान लेकर दउरा में रख कर घर का सदस्य छठ घाट पर ले जाता है।
आस्था की पराकाष्ठा यहां यह देखने को मिलता है कि पूजा का सामान अपवित्र न हो इसलिए इसे सर के ऊपर रखकर जाते हैं। छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में प्रायः महिलाये छठ का गीत गाते हुए जाती है। नदी या तालाब के किनारे जाकर महिलाये घर के किसी सदस्य द्वारा बनाये गए चबूतरे पर बैठती है। सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्य देव की पूजा का सारा सामान लेकर व्रती घुटने भर पानी में जाकर खड़े हो जाते है और डूबते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देकर पांच बार परिक्रमा करते है।
कार्तिक मास में खेतों में उपजे सभी नए कन्द-मूल, फलसब्जी, मसाले व अन्नादि यथा गन्ना, कोहरा, अदरख, हल्दी, नारियल, डाभ नींबू, पके केले आदि चढ़ाए जाते हैं। ये सभी वस्तुएं पूर्ण रूप में (बिना कटे टूटे) ही अर्पित होते हैं। इसके अतिरिक्त दीप जलाने हेतु, नए दीपक, नई बत्तियाँ व घी ले जाकर घाट पर दीपक जलाते हैं। बहुत सारे लोग घाट पर रात भर ठहरते है वही कुछ लोग छठ का गीत गाते हुए सारा सामान लेकर घर आ जाते है और उसे देवकरी में रख देते है।
छठ का चतुर्थ दिवस : उषा अर्घ्य (उदयागामी सूर्य)
चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। सूर्योदय से पहले ही व्रती लोग घाट पर उगते सूर्यदेव की पूजा हेतु पहुंच जाते हैं और शाम की ही तरह उनके पुरजन-परिजन उपस्थित रहते हैं। संध्या अर्घ्य में अर्पित पकवानों को नए पकवानों से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है परन्तु कन्द, मूल, फलादि वही रहते हैं। सभी नियम-विधान सांध्य अर्घ्य की तरह ही होते हैं। सिर्फ व्रती लोग इस समय पूरब की ओर अर्थात उदय होते सूर्य की ओर मुंहकर पानी में खड़े होते हैं व सूर्योपासना करते हैं। पूजा-अर्चना समाप्तोपरान्त घाट का पूजन होता है। व्रती घर वापस आकर गाँव के पीपल के पेड़ जिसको ब्रह्म बाबा कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं। पूजा के पश्चात् व्रती शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं। व्रती लोग खरना दिन से आज तक निर्जला उपवासोपरान्त आज सुबह ही नमकयुक्त भोजन करते हैं।
छठ पर्व मूलतः सूर्य की आराधना का पर्व है, जिसे हिन्दू धर्म में विशेष स्थान प्राप्त है। हिन्दू धर्म के देवताओं में सूर्य ऐसे देवता हैं, जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है। सूर्य की शक्तियों का मुख्य श्रोत उनकी पत्नी ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्य के साथ-साथ दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना होती है। सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) और प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (ऊषा) को अर्घ्य देकर दोनों का नमन किया जाता है।
भारत में सूर्योपासना ऋगवेद काल से होती आ रही है। सूर्य और इसकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भगवत पुराण, ब्रह्मा वैवर्त पुराण आदि में विस्तार से की गयी है। मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के व्यवस्थित पर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया, जो अभी तक चला आ रहा है। सृष्टि और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारम्भ हो गयी। लेकिन देवता के रूप में सूर्य की वन्दना का उल्लेख पहली बार ऋगवेद में मिलता है। इसके बाद अन्य सभी वेदों के साथ ही उपनिषद् आदि वैदिक ग्रन्थों में इसकी चर्चा प्रमुखता से हुई है।
निरुक्त के रचियता यास्क ने द्युस्थानीय देवताओं में सूर्य को पहले स्थान पर रखा है। उत्तर वैदिक काल के अन्तिम कालखण्ड में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना होने लगी। इसने कालान्तर में सूर्य की मूर्ति पूजा का रूप ले लिया। पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। अनेक स्थानों पर सूर्यदेव के मंदिर भी बनाये गये। पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा था। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पायी गयी। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसन्धान के क्रम में किसी खास दिन इसका प्रभाव विशेष पाया। सम्भवत: यही छठ पर्व के उद्भव की बेला रही हो।
एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था। (रामायण से)
एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्यदेव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। वह प्रतिदिन घण्टों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देते थे। सूर्यदेव की कृपा से ही वे महान योद्धा बने थे। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है। कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रौपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लम्बी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं। (महाभारत से)
एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनायी गयी खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परन्तु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गये और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त ब्रह्माजी की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूँ। हे! राजन् आप मेरी पूजा करें तथा लोगों को भी पूजा के प्रति प्रेरित करें। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।
छठ पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व में बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्त्तनों, गन्ने का रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गयी उपासना पद्धति है। इसके केंद्र में वेद, पुराण जैसे धर्मग्रन्थ न होकर किसान और ग्रामीण जीवन है। इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है न पुरोहित या गुरु के अभ्यर्थना की। जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के सहयोग की जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक प्रस्तुत रहता है। इस उत्सव के लिए जनता स्वयं अपने सामूहिक अभियान संगठित करती है। नगरों की सफाई, व्रतियों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबन्धन, तालाब या नदी किनारे अर्घ्य दान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए समाज सरकार के सहायता की राह नहीं देखता। इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है। यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा-भाव और भक्ति-भाव से किये गये सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है।
छठ पूजा का सार है आस्था, श्रद्धा, और स्वच्छता। इस पर्व के माध्यम से व्यक्ति न केवल अपने और परिवार के लिए सुख-समृद्धि की कामना करता है, बल्कि पर्यावरण और समाज के प्रति भी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करता है। इस पावन पर्व का महत्व समझते हुए हमें अपने जीवन में श्रद्धा, सकारात्मकता और अनुशासन का संचार करना चाहिए।