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🌺 रामत्‍व अपनायें – जीवन में मर्यादा लायें 🌺

 

रामनवमी विशेष: मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम — एक आदर्श जीवन की अमर गाथा

 

रामो विग्रहवान् धर्मः”राम धर्म का सजीव स्वरूप हैं।” — यह वाक्य श्रीराम के चरित्र का सार है, जो केवल त्रेता युग की नहीं, हर युग की आवश्यकता है।

 

 रामनवमी: भगवान श्रीराम का प्राकट्य दिवस

 

रामनवमी हिन्दू पंचांग के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाई जाती है। यह वह दिव्य तिथि है जब अयोध्या नरेश दशरथ के यहां रघुकुल-रत्न श्रीराम का जन्म हुआ, जिन्होंने न केवल राक्षसों का विनाश किया, बल्कि समस्त मानवता को धर्म, त्याग, सत्य, व्रत, वचन और मर्यादा का मार्ग दिखाया।

 

श्रीराम का जीवन: मर्यादा का प्रतिमान

शास्त्रों में वर्णन:

रामं दशरथं विद्धि, रामं सत्यपराक्रमम्।
रामं सर्वगुणोपेतं, रामं सत्यपरायणम्॥” (वाल्मीकि रामायण)

 

इस श्लोक में भगवान राम को सत्यपरायण, धर्मशील, पराक्रमी और गुणसम्पन्न बताया गया है। श्रीराम का जीवन एक राजा, पुत्र, भ्राता, पति, मित्र, सेनापति और शत्रु — सभी भूमिकाओं में आदर्श रहा। भगवान श्री राम का सम्पूर्ण जीवन मर्यादाओं की जीवंत प्रतिमा है। उन्होंने अपने हर संबंध, हर निर्णय और हर परिस्थिति में मर्यादा, धर्म और कर्तव्य को प्राथमिकता दी।

 

  1. पुत्रधर्म – जब आज्ञा ही धर्म बन गई। श्रीराम अपने पिता दशरथ की आज्ञा के पालन हेतु जो कुछ किया, वह सनातन संस्कृति में आदर्श बन गया।
  • रानी कैकेयी ने जब दशरथ से दो वरदान लेकर श्रीराम को 14 वर्षों के लिए वनवास भेजने की मांग की, तो दशरथ अत्यंत दुःखी हुए।
  • किन्तु श्रीराम ने बिना किसी क्रोध, तर्क-वितर्क या विलंब के, अपने पिता की आज्ञा को धर्म  समझकर सहज भाव से स्वीकार कर लिया।
  • उन्होंने माता कौशल्या, भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता को भी यह समझाया कि पिता की आज्ञा ही मेरा धर्म है।”

 

वाल्मीकि रामायण में श्रीराम जी का वचन है:

पितुर्वचननिर्देशात् प्रविष्टोऽहमिदं वनम्।
पितुर्वचनं कुर्यां हि एष धर्मः सनातनः॥”
 

मैं इस वन में इसलिए आया हूँ क्योंकि यह मेरे पिता की आज्ञा थी। मैं उनका वचन अवश्य निभाऊँगा, क्योंकि यही मेरा सनातन धर्म है।”

यह श्लोक उस समय का है जब श्रीराम, वनवास स्वीकार करके अरण्य की ओर निकल चुके हैं, और भरत उन्हें लौटने का अनुरोध कर रहे हैं। भरत के आग्रह पर श्रीराम यह स्पष्ट करते हैं कि पिता का वचन निभाना ही मेरा परम धर्म है। वह धर्म केवल वेद-पुराण या उपदेश नहीं है, बल्कि जीवन में रिश्तों और कर्तव्यों को निभाना भी उतना ही महान धर्म है। यह केवल एक पारिवारिक आज्ञा नहीं, बल्कि सनातन धर्म की आत्मा है।

 

  1. भ्रातृधर्म – भ्रातृ्प्रेम की पराकाष्ठा

श्री राम का भाइयों के प्रति स्नेह, आदर और त्याग अद्वितीय है।

  • लक्ष्मण के साथ उनका संबंध केवल खून का नहीं था, बल्कि यह धर्म और सेवा के सूत्र से भी बंधा था। लक्ष्मण ने चौदह वर्ष वनवास में साथ रहकर सेवा की, और राम ने भी उन्हें सदैव सम्मान और विश्वास से देखा।
  • भरत ने अयोध्या का सिंहासन अस्वीकार कर, राम की खड़ाऊं को राजगद्दी पर स्थापित किया और नंदिग्राम में तपस्वी जीवन व्‍य‍तीत किया। राम ने भरत की इस निष्ठा को अभिभूत होकर अपनाया। यह पंक्ति गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस से ली गई है। भरतजी का चरित्र श्रीराम भक्तों के लिए त्याग, प्रेम, और धर्मनिष्ठा का प्रतीक है।
भरत सम भाई नहिं कोई।
राम सनेहं अमिअ मय सोई॥”

भरत जैसा कोई भाई नहीं है। उनका श्रीराम के प्रति जो प्रेम है, वह अमृत से भी अधिक मधुर और पवित्र है।” यह दोहा श्रीराम के ही मुख से निकला है। जब वे अपने अनुज भरत के त्याग, निष्ठा और प्रेम को स्मरण करते हैं, तब वह इस वाक्य के माध्यम से भरत की भक्ति की महानता को प्रकट करते हैं।

भरत जी का चरित्र, मर्यादा और भक्ति का प्रतीक है। भरत को जब अयोध्या का राजसिंहासन दिया गया, तब उन्होंने उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया। वे श्रीराम से मिलने नंगे पाँव, वनों में, तपस्वी वेष में गए और उनसे वापस अयोध्‍या लौटने की मिन्‍नत करने लगे। लेकिन श्री राम जी द्वारा भरत को मर्यादा और उत्‍त्‍रदायित्‍व का ज्ञान से अवगत कराने पर वह वापस श्री राम जी की चरणपादुका लेकर वापस लौट आये। उन्होंने श्री राम की खड़ाऊँ (चरणपादुका) को अयोध्या की राजगद्दी पर रखकर, स्वयं एक सेवक की भाँति नंदिग्राम में तपस्वी जीवन बिताया। भरत जी का प्रेम न सत्ता के लिए था, न यश के लिए — बल्कि वह निष्कलंक, निःस्वार्थ और निष्काम भक्ति का आदर्श था। राम के बिना न राज, न सुख, न घर, न जीवन — बस राम ही सब कुछ हैं, यही भरत का भाव था। उपरोक्‍त केवल दो पंक्तियाँ नहीं हैं, बल्कि यह भक्ति, मर्यादा, त्याग और प्रेम की चरम सीमा का प्रतीक है।

 

  1. पतिधर्म – प्रेम, त्याग और सामाजिक मर्यादा का संतुलन

 

श्री राम का पतिधर्म सबसे जटिल और सबसे चर्चित पक्ष रहा है। उन्होंने एक आदर्श पति के रूप में सीता माता के साथ वनगमन में उन्हें साथ ले जाकर सहचरी की भूमिका को मान्यता दी। रावण वध कर सीता जी को लौटा लाए, किंतु समाज की आलोचना और मिथ्या आरोपों के चलते सीता त्याग जैसा कठिन निर्णय भी लिया।

यहाँ दो मर्यादाएँ टकराईं — पति का प्रेम बनाम राजा का उत्तरदायित्व। राम ने राजा के रूप में राजधर्म  को चुना, किन्तु इसका दुःख जीवन भर सहा। प्रेम और मर्यादा के बीच श्रीराम ने मर्यादा को प्राथमिकता दी।”

 

तुलसीदास जी ने लिखा:

प्रेम लाग्यो मर्यादा महँ। राम नाम बिनु माण न वाहँ॥”

 

अब मुझे प्रेम भी मर्यादा के भीतर ही अच्छा लगता है। श्रीराम के नाम के बिना कोई भी मान-सम्मान मुझे स्वीकार नहीं है।”

 

यह दोहा भक्त के उस भाव को प्रकट करता है जहाँ वह कहता है — अब प्रेम भी अनुशासन और मर्यादा में ही सार्थक लगता है। बिना श्रीराम के नाम के, कोई यश, पद, सम्मान, शास्त्रज्ञान या वैभव मुझे शोभा नहीं देता। यह केवल अंधभक्ति नहीं, बल्कि संयमित, मर्यादित और सच्चे प्रेम की अभिव्यक्ति है। यह भाव श्रीराम के जीवन के साथ भी जुड़ा हुआ है, क्योंकि श्रीराम ने मर्यादा में रहकर ही प्रेम निभाया — चाहे वह सीता जी के प्रति प्रेम हो, भरत-लक्ष्मण के प्रति, या फिर प्रजा के प्रति। उनका सम्पूर्ण जीवन मर्यादा में बंधा प्रेम का उदाहरण है।

प्रेम अगर मर्यादा से परे हो जाए, तो वह मोह बन जाता है। लेकिन जब प्रेम संयमित हो, नियमों और त्याग से युक्त हो — वह ही भक्ति बनता है।

इसलिए यह दोहा कहता है कि — अब मुझे वही प्रेम अच्छा लगता है, जो श्रीराम की मर्यादा में बंधा हो,
और अगर उसमें राम नाम का आस्वाद नहीं है, तो वह प्रेम भी शून्य है।

 

4 राजधर्म – प्रजा सर्वोपरि

 

श्री राम ने राजा बनने के बाद भी हर निर्णय में प्रजा को सर्वोपरि रखा। उन्होंने न्याय, सत्य और धर्म के आधार पर शासन किया — जिसे आज भी रामराज्य” का उपमा देकर संबोधित करते हैं। रामराज्य में न कोई दुखी था, न रोगी, न असुरक्षित। सीता के त्याग का निर्णय भी उन्होंने राजा के रूप में लिया, पति के रूप में नहीं — क्योंकि वह कहते हैं:प्रजा का विश्वास, राजा के लिए सर्वोच्च होता है।”

श्रीराम का हृदय प्रजा के हित में ही निबद्ध था।”

 

वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है:

प्रजाहिते निबद्धात्मा रामो राजीवलोचनः।
प्रियं धर्मं च सत्यं च राजा लोकानुसारगः॥
 

कमल के समान नेत्रवाले श्रीराम जी प्रजा के हित में अपने मन को समर्पित करने वाले थे। वे धर्म, सत्य और लोकाचार का पालन करते हुए एक आदर्श राजा के रूप में राज्य करते थे।”

 

यह श्लोक श्री राम के उस आदर्श चरित्र को चित्रित करता है, जिसे रामराज्य’ कहते हैं। उनके  राज्य में प्रजा का हित सर्वोपरि था। वे न केवल धर्म का पालन करते थे, बल्कि सत्य को जीवन में उतारते थे। वे जनता की भावनाओं के अनुरूप निर्णय लेते, और न्यायप्रिय थे। श्रीराम ने राजा होकर भी स्वयं के सुख की अपेक्षा प्रजा की भलाई को महत्त्व दिया — यही कारण है कि उन्होंने सीता जी का परित्याग भी जनता के लोकाचार और भावना को ध्यान में रखकर किया, चाहे वह निर्णय व्यक्तिगत रूप से कितना ही कष्टदायक क्यों न हो। श्री राम जी के शासन का कोई साधारण नहीं है, बल्कि सनातन धर्म में आदर्श नेतृत्व का सूत्र है।

 

रामायण: आदर्श चरित्रों की जीवंत पाठशाला

 

रामायण: आदर्श चरित्रों की जीवंत पाठशाला है” — यह वाक्य केवल प्रशंसा नहीं, बल्कि रामायण के मूल तत्व का सार है। रामायण केवल एक कथा नहीं, जीवन जीने की कला है। वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास कृत रामचरितमानस, अद्भुत नीतियों, नीति-वाक्यों और आदर्शों से भरी हुई हैं।

 

धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा लोको धर्मेण तिष्ठति।
धर्मसारं इदं चापि न त्वं धर्मं अतिक्रमेत्॥ (वाल्मीकि रामायण)

 

धर्म ही सम्पूर्ण संसार की नींव है। यह लोक धर्म से ही टिका हुआ है। यह सम्पूर्ण ज्ञान और कर्तव्य का सार है। हे भरत! तुम्हें कभी भी धर्म का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। वाल्मीकि रामायण या तुलसीकृत रामचरितमानस केवल ग्रंथ नहीं हैं — ये मानव जीवन के हर रूप, हर भूमिका और हर मूल्य का जीवन्त पाठ प्रदान करते हैं।

 

  1. मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम — आदर्श पुत्र, भाई, पति, राजा
  • पुत्र धर्म: पिता के वचनों को सर्वोपरि मानते हुए वनवास को स्वीकार करना — पितु वचनं कृत्वा एव धर्मो मम निश्चयः”
  • भ्रातृ धर्म: भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न के साथ स्नेह, समर्पण और सहयोग का अनुपम उदाहरण
  • पतिधर्म: पत्नी की रक्षा हेतु रावण से युद्ध, परन्तु राजधर्म के कारण उनका त्याग भी
  • राजधर्म: प्रजाहित को सर्वोपरि मानना — प्रजाहिते निबद्धात्मा रामो राजीवलोचनः”

 

  1. माता सीता — सहनशीलता, नारी गरिमा और आत्मसम्मान की मूर्ति
  • रघुकुल की कुलवधू होते हुए भी वन में पति के साथ वनवास को स्वीकार करना
  • रावण की अशोकवाटिका में रहते हुए सत्य, शील और चरित्र की रक्षा
  • अग्निपरीक्षा, त्याग, और अंत में धरती में समावेश — हर स्तर पर नारी-बल का प्रतीक

 

  1. लक्ष्मण — सेवा, समर्पण और संयम का आदर्श
  • 14 वर्षों तक भाई की सेवा, सीता की रक्षा, वासना से पूर्ण संयम
  • लक्ष्मण-रेखा जैसे सिद्धांत आज भी सुरक्षा और मर्यादा के प्रतीक हैं

 

  1. भरत — त्याग, भक्ति और निःस्वार्थ प्रेम का उदाहरण
  • सिंहासन ठुकराकर नंगे पाँव श्रीराम के पास जाना
  • उनकी खड़ाऊँ को राजगद्दी पर रखकर स्वयं तपस्वी जीवन जीना

भरत सम भाई नहिं कोई। राम सनेहं अमिअ मय सोई॥”

 

  1. हनुमान — निष्ठा, भक्ति और साहस का सर्वोच्च आदर्श
  • रामभक्ति में इतना तल्लीन कि स्वयं को रामदास मानते हैं
  • असंभव को संभव करने की प्रेरणा — रामकाज कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम”
  • हनुमान आज भी कर्मयोग, बुद्धियोग और भक्ति का प्रतीक हैं

 

  1. रावण — ज्ञान और अहंकार का द्वंद्व
  • वेदों का ज्ञाता, महाज्ञानी, परंतु अहंकार और वासना ने उसे विनाश की ओर ले गया
  • शिक्षा: केवल ज्ञान पर्याप्त नहीं, विनम्रता और संयम भी आवश्यक हैं।

 

रामायण क्यों “जीवंत पाठशाला” है? क्‍योंकि रामायण के चरित्र कालातीत हैं — हर युग में प्रासंगिक। ये चरित्र कविता या कथा नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला सिखाते हैं। हर संबंध पिता-पुत्र, भाई-भाई, पति-पत्नी, राजा-प्रजा, गुरु-शिष्य — सभी के आदर्श मिलते हैं। हर भाव — भक्ति, नीति, युद्ध, प्रेम, त्याग, अहंकार, संयम — सभी का संतुलन है।

रामायण कोई कहानी नहीं, जीवन की पाठशाला है। जहाँ हर पात्र एक आदर्श शिक्षक है,
और हर प्रसंग एक नीति का पाठ। आज के समाज, परिवार और व्यक्ति के लिए रामायण दर्पण और दिशा दोनों है।

 

आज के युग में श्रीराम का आदर्श क्यों आवश्यक है?

आज जब समाज लोभ, असत्य, छल-कपट, अधर्म और स्वार्थ से जूझ रहा है, तब राम जैसे आदर्श पुरुष की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है।

  • राजनीति में श्रीराम की सत्यनिष्ठा।
  • व्यवसाय में उनके जैसा वचन पालन।
  • पारिवारिक जीवन में उनके आदर्श संबंध।
  • सामाजिक जीवन में करुणा और दायित्वबोध।

 

श्रीराम की जीवन प्रसंग से हमें यह सीख मिलता है कि बल से नहीं, चरित्र से विजय होती है।

 

रामत्व को अपनाएं – यही सच्चा रामनवमी उत्सव है। रामनवमी केवल व्रत, पूजन और शोभायात्रा तक सीमित नहीं होनी चाहिए — यह एक संकल्प का दिन बने कि हम अपने जीवन में भी रामत्व को स्थान दें। राम केवल मंदिरों और पूजा घरों में ही  नहीं, हृदय में प्रतिष्ठित हों।

 

अंत में तुलसीदासजी की वाणी में श्रीराम का स्मरण:

राम नाम मनि दीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तिमि भीतरि बाहेरहुँ जौ चाहसि उजियार॥” (श्रीरामचरितमानस)

 

यदि जीवन में उजाला चाहिए, तो रामनाम रूपी दीपक को अपने जिह्वा रूपी द्वार पर रखो। इससे भीतर और बाहर, दोनों में प्रकाश होगा।

जय श्रीराम!

आप सभी को रामनवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।

रामत्व अपनाएं, जीवन में मर्यादा लाएं।

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