रूद्राभिषेक: भगवान शिव की परम आराधना
रूद्राभिषेक कोई साधारण पूजा नहीं, बल्कि भगवान शिव के साथ एक गहन आध्यात्मिक संवाद है। यह वह पवित्र क्रिया है जहाँ प्रत्येक जलबिंदु, प्रत्येक मंत्र और प्रत्येक भावना शिव के चरणों में समर्पित होती है। जब जीवन में अंधकार छा जाता है, जब मन अशांत हो उठता है, तब रूद्राभिषेक वह दिव्य प्रकाश बनकर आता है जो हर पीड़ा को शिव की कृपा से धो देता है।
“रुद्राभिषेकं यः कुर्यात् सर्वपापैः प्रमुच्यते।
स याति शिवसालोक्यं अन्ते शिवपुरं व्रजेत्॥”
(शिव पुराण)
जो रूद्राभिषेक करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर अंत में शिवलोक को प्राप्त करता है।
यह अनुष्ठान भारतीय वैदिक परंपरा का एक अद्भुत रहस्य है, जहाँ जल, मंत्र और भक्ति का समन्वय होता है। आइए, इसके गूढ़ रहस्यों, पौराणिक प्रसंगों, विधि और महत्व को विस्तार से जानें।
रूद्राभिषेक का शाब्दिक अर्थ और वैदिक परिप्रेक्ष्य
रूद्र = भगवान शिव का उग्र एवं कल्याणकारी स्वरूप (संहारक किन्तु कल्याणकारी)
अभिषेक = पवित्र द्रव्यों (जल, दूध, घी आदि) से स्नान कराना
अतः, रूद्राभिषेक = “शिव के रूद्र रूप का पवित्र द्रव्यों से अभिषेक करना।”
वैदिक संदर्भ
वेदों में रूद्र को “घोर और सौम्य” दोनों स्वरूपों में वर्णित किया गया है:
- यजुर्वेद के “श्री रुद्राष्टाध्यायी” में रूद्र की स्तुति की गई है: “नमः शिवाय च शिवतराय च” (शिव को और शिव से भी अधिक कल्याणकारी को नमस्कार।)
- ऋग्वेद (7.59.12) में कहा गया: “रुद्रस्य मा हृदये निधेहि” (हे प्रभु! मुझे अपने हृदय में स्थान दो।)
इन मंत्रों का उच्चारण रूद्राभिषेक में किया जाता है, जो शिव की कृपा प्राप्त करने का सबसे शक्तिशाली साधन है।
पौराणिक इतिहास एवं प्रमुख प्रसंग
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रामायण में रूद्राभिषेक
यह कथा रामायण और स्कंद पुराण सहित कई पुराणों में वर्णित है, जिसमें यह बताया गया है कि भगवान श्रीराम ने लंका विजय से पूर्व रामेश्वरम में भगवान शिव की उपासना की थी। यह कथा धर्म, भक्ति और मर्यादा का सुंदर संगम है। जब भगवान श्रीराम सीता माता की खोज में लंका जाने का निश्चय करते हैं, तो उन्हें समुद्र पार करना होता है। इसके लिए उन्होंने वानर सेना के साथ रामेश्वरम (तमिलनाडु में स्थित) तट पर शिविर डाला। लंका पर चढ़ाई से पहले श्रीराम ने सोचा कि किसी भी युद्ध में जाने से पहले ईश्वर का आशीर्वाद लेना चाहिए।
भगवान श्रीराम ने समुद्र पार करने से पहले भगवान शिव की पूजा करने का संकल्प लिया। उन्होंने वहां एक शिवलिंग स्थापित करके उसकी विधिपूर्वक पूजा की। श्रीराम ने हनुमानजी को कैलाश पर्वत भेजा कि वे वहां से स्वयंभू शिवलिंग लेकर आएं ताकि उसी का पूजन करके युद्ध का आरंभ करें। हनुमानजी कैलाश पर्वत पर गए और वहां से एक दिव्य शिवलिंग लाने लगे, लेकिन उन्हें आने में विलंब हो गया। उधर पूजन का शुभ मुहूर्त निकला जा रहा था। अतः श्रीराम ने वहां की रेत से स्वयं एक शिवलिंग तैयार किया और उसका पूजन कर भगवान शिव से विजय का आशीर्वाद प्राप्त किया।
जब हनुमानजी लौटे और देखा कि पूजन हो चुका है, तो वे निराश हो गए। उन्होंने सोच लिया कि उनकी सेवा अस्वीकार कर दी गई है। श्रीराम ने उनकी भावना को समझा और उन्हें सान्त्वना दी। उन्होंने कहा कि जो शिवलिंग तुम लाए हो, उसे भी यहां स्थापित किया जाएगा और जो भी भक्त पहले तुम्हारे लाए हुए शिवलिंग की पूजा करेगा, वह फल प्राप्त करेगा, और बाद में मेरे द्वारा स्थापित शिवलिंग की पूजा करेगा। इस प्रकार, रामेश्वरम में दो शिवलिंग स्थापित हुए –
रामलिंगम – श्रीराम द्वारा स्थापित (मुख्य पूजा का केन्द्र) तथा विशाल लिंगम – हनुमानजी द्वारा लाया गया, जिसे विश्वलिंगम या हनुमान लिंग भी कहते हैं। यह स्थान “रामेश्वर” कहलाया – यानी “राम द्वारा पूजित ईश्वर (शिव)”। रामेश्वरम को चार धामों में से एक माना गया है। यह स्थान शिव और विष्णु भक्ति का मिलन बिंदु है। मान्यता है कि यहां पूजा करने से व्यक्ति को समस्त पापों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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महाभारत में अर्जुन का तप
यह दिव्य कथा महाभारत के वनपर्व में वर्णित है, जिसमें अर्जुन ने भगवान शिव की कठोर तपस्या कर उनसे अत्यंत शक्तिशाली “पाशुपत अस्त्र” प्राप्त किया। यह कथा न केवल अर्जुन की वीरता और भक्ति को दर्शाती है, बल्कि भगवान शिव की कृपा और परीक्षण की लीला को भी प्रकट करती है।
जब पांडवों को जुए में छलपूर्वक हराकर वनवास भेजा गया, तो वे 13 वर्षों के लिए जंगल में रहे। युद्ध की पूर्व संकल्पना को ध्यान में रखते हुए श्रीकृष्ण और व्यास मुनि ने अर्जुन को सलाह दी कि वह दिव्य अस्त्रों की प्राप्ति के लिए तप करे। उन्होंने विशेष रूप से कहा कि भगवान शिव की आराधना करके पाशुपत अस्त्र प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि यह ब्रह्मांड का सबसे घातक और अद्वितीय अस्त्र है। अर्जुन उत्तराखंड के इंद्रकील पर्वत (आज का केदारनाथ क्षेत्र) में गए और वहां भगवान शिव की कठोर तपस्या प्रारंभ की। उन्होंने कई वर्षों तक केवल फल, फिर जल और अंत में वायु पर निर्भर रहकर तप किया। उनकी तपस्या इतनी तीव्र थी कि देवताओं तक को चिंता हुई।
एक दिन एक भयानक दानव, मुखासुर (या मुकासुर), अर्जुन की तपस्या भंग करने के लिए आया। वह एक जंगली सूअर के रूप में प्रकट हुआ और अर्जुन की ओर दौड़ा। अर्जुन ने तत्क्षण अपने धनुष से उस पर बाण चला दिया। ठीक उसी क्षण एक और बाण आकर उस सूअर को लगा। अर्जुन ने देखा कि सामने एक अत्यंत बलशाली वनवासी (किराट रूपधारी) खड़ा है – वही भगवान शिव थे, जो अर्जुन की परीक्षा लेने आए थे। दोनों में यह विवाद हुआ कि सूअर को किसने मारा। बात युद्ध तक पहुँच गई। अर्जुन ने उस किराट (भगवान शिव) से युद्ध किया, परंतु जितनी बार वे बाण छोड़ते, वह किराट उन्हें बिना प्रयास के शांतचित होकर मुस्कुराते हुए रोक देता। जब अस्त्रों से बात न बनी, अर्जुन ने गदा, तलवार, भालों से भी हमला किया, लेकिन सफल नहीं हुए। अंततः अर्जुन ने धनुष तोड़ दिया और पास के वृक्ष से एक माला बनाकर भगवान शिव को अर्पित की। जब अर्जुन ने तपस्वी भाव से शिव की आराधना की और मस्तक झुकाया, तब उन्होंने देखा कि वह किराट कोई और नहीं, स्वयं महादेव हैं।
भगवान शिव अर्जुन की वीरता, धैर्य और भक्ति से प्रसन्न होकर अपने वास्तविक रूप में प्रकट हुए। उन्होंने अर्जुन को गले लगाया और कहा— “हे अर्जुन! तुमने धैर्य, पराक्रम और श्रद्धा का प्रमाण दिया है। मैं तुम्हारे तप से अत्यंत प्रसन्न हूँ।” फिर भगवान शिव ने उन्हें पाशुपत अस्त्र प्रदान किया और कहा कि यह अस्त्र केवल अत्यंत संकट के समय ही प्रयोग किया जा सकता है, क्योंकि इसकी शक्ति ब्रह्मांड को भी नष्ट कर सकती है। पाशुपत अस्त्र भगवान शिव का सर्वाधिक शक्तिशाली अस्त्र है। इसे केवल उच्चतम आत्मनियंत्रण, धर्म और तप के साथ अर्जित किया जा सकता है। इसका प्रयोग साधारण युद्धों में नहीं किया जा सकता, केवल विषम परिस्थितियों में।
इस कथा के पीछे यह संदेश छिपा है कि धैर्य और तपस्या से कोई भी लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर भक्त की परीक्षा लेते हैं, लेकिन अंत में उसकी श्रद्धा को स्वीकार करते हैं। वीरता के साथ भक्ति का संगम ही सच्चे युद्ध और धर्म का मार्ग है।
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शिव पुराण की कथा
पौराणिक ग्रंथों (विशेषकर विष्णु पुराण, शिव पुराण और भागवत पुराण) के अनुसार, समुद्र मंथन देवताओं और असुरों का एक संयुक्त प्रयास था जिसका उद्देश्य अमृत प्राप्त करना था। इस महान घटना के पीछे कई महत्वपूर्ण कारण थे: असुरों के अत्याचार से पीड़ित देवताओं ने विष्णु जी की सलाह पर समुद्र मंथन का निर्णय लिया। मंथन से विभिन्न दिव्य वस्तुएँ प्राप्त होनी थीं, जिनमें अमृत सर्वप्रमुख था। मंथन की प्रक्रिया में मंदराचल पर्वत को मथानी बनाया गया। वासुकि नाग को रस्सी के रूप में प्रयोग किया गया। कूर्म अवतार (विष्णु जी) ने पर्वत को अपनी पीठ पर संभाला।
मंथन के दौरान सबसे पहले कालकूट विष (हलाहल) निकला, जो इतना भयंकर था कि आकाश में धुएँ के बादल छा गए, पृथ्वी काँपने लगी, समुद्र उबलने लगा, सभी प्राणियों में भय व्याप्त हो गया। इसका रंग नीला-काला था और यह अत्यंत तापीय था।
“कालकूटं महाघोरं सर्वप्राणभयंकरम्।
दृष्ट्वा देवाः समभ्येतुः शरणं शंकरं प्रभुम्॥”
(शिव पुराण)
इससे सभी देवता भयभीत होकर शिव की शरण में गए। उनके अनुनय को सुनकर भगवान शिव ने संसार की रक्षा के लिए विषपान का निर्णय लिया। इन्होंने विषपान करते समय विष को अपने कंठ में रोक लिया, विष के प्रभाव से कंठ का वर्ण नीला हो गया, इसी कारणवश शिव जी को नीलकंठ नाम से भी जाना जाता है। चन्द्रमा के शीतल प्रभाव से विष की तीव्रता कम की गई और उसे भगवान शिव ने अपने शीश पर धारण किया। शिव जी उस समय यह अवस्था हो गई थी कि शरीर का तापमान असहनीय हो गया, त्वचा नीली पड़ गई। उन्होंने स्वयं को समाधि में लीन कर विष का प्रभाव नियंत्रित किया।
विषपान के परिणाम यह हुआ कि संसार विषमुक्त हुआ और पृथ्वी पर जीवन सुरक्षित हुई। जबकि भगवान शिव के लिए परिणाम हुआ कि स्थायी रूप से कंठ नीला हो गया और विषधर और संहारक के रूप में प्रसिद्धि मिली।
विषपान एक घटना मात्र नहीं था, इसके पीछे यह आध्यात्मिक संदेश है कि यह महान त्याग की प्रतीक घटना है और “सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय” की भावना का उदाहरण है।
इसके पश्चात् सभी देवताओं ने भगवान शिव की विशेष आराधना की। अभिषेक से शुरुआत हुई, जिसमें दूध, दही, घी, शहद से शिवलिंग का अभिषेक किया गया और बिल्वपत्र चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई। इसके उपरांत ही महामृत्युंजय मंत्र का प्रार्दुभाव हुआ और रुद्राभिषेक का विधान बना।
“ॐ त्र्यम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्, मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥”
(महामृत्युंजय मंत्र)
भगवान शिव का संहारक-कल्याणकारी स्वरूप उस अद्वितीय चरित्र को दर्शाती है जहाँ वे संहारक हैं पर कल्याण के लिए। विषपान किए हैं पर अमृतमय हैं। रूद्र या भयंकर हैं पर शांतिदाता हैं। शिव ही संकटों के संहारक और मंगल के धाम हैं। जो शिव को जान लेता है, वह सभी विषों से मुक्त हो जाता है।
रूद्राभिषेक क्यों किया जाता है?
- मनोकामना पूर्ति
– विवाह, संतान प्राप्ति, धन-समृद्धि के लिए।
– शिव पुराण में कहा गया: “य इच्छेद्भूतिमात्मनः, स रुद्रं यजेत प्रयत्नतः।”
(जो व्यक्ति अपना कल्याण चाहता है, उसे रूद्र की पूजा करनी चाहिए।)
- ग्रह दोष शांति
– शनि, राहु-केतु के अशुभ प्रभाव को दूर करने हेतु।
- रोग निवारण
– महामृत्युंजय मंत्र का जाप मृत्यु तक को टालने की शक्ति रखता है।
- आत्मिक शुद्धि
– पापों का नाश कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
रूद्राभिषेक के प्रकार
- जलाभिषेक – सामान्य जल से, दैनिक पूजा में।
- पंचामृताभिषेक – दूध, दही, घी, शहद, शक्कर से।
- रुद्राष्टाध्यायी अभिषेक – पूर्ण रुद्र पाठ के साथ।
- महामृत्युंजय अभिषेक – आयु वृद्धि एवं रोग निवारण हेतु।
रूद्राभिषेक के लाभ
- शारीरिक: रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
- मानसिक: तनाव, अवसाद से मुक्ति।
- आध्यात्मिक: मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।
भारत के प्रमुख रूद्राभिषेक स्थल
- काशी विश्वनाथ (वाराणसी)
- केदारनाथ (उत्तराखंड)
- त्र्यंबकेश्वर (नासिक)
- महाकालेश्वर (उज्जैन)
भगवान शिव कृपा के सागर हैं। रूद्राभिषेक भक्ति, विज्ञान और आस्था का अनूठा संगम है। यह न केवल भौतिक लाभ देता है, बल्कि आत्मा को परम शांति की ओर ले जाता है।
“शिवः सर्वस्य भर्ता, शिवः सर्वस्य रक्षकः।
शिवं प्राप्य न जातु दुःखी, शिवं प्राप्य सुखी भवेत्॥”
(शिव सबके पालनहार हैं, शिव की कृपा पाकर कोई दुःखी नहीं रहता।)
शिव पुराण की प्रमुख कथा: राजा चित्रशर्मा की कहानी
राजा चित्रशर्मा की कथा शिव महापुराण के अंतर्गत वर्णित है। यह एक ऐसी कथा है जो हमें यह सिखाती है कि यदि मनुष्य सच्चे हृदय से भगवान शिव की भक्ति करे एक बार भी तो वह जीवन-मरण के बंधनों से मुक्त हो सकता है।
राजा चित्रशर्मा एक अत्यंत धर्मनिष्ठ, दानवीर और न्यायप्रिय राजा थे। वे शिवभक्त नहीं थे, परंतु उन्होंने कभी भी किसी भक्त या साधु का अनादर नहीं किया। एक दिन एक गरीब वृद्ध ब्राह्मण उनके दरबार में आया। उसने राजा से कुछ श्रवण करने योग्य कथाएं सुनाने की इच्छा प्रकट की और राजा से विनती की कि वह शिव पुराण की कथा श्रवण करें। राजा ने आदरपूर्वक ब्राह्मण को स्थान दिया और शिवपुराण की कथा सुननी शुरू की। धीरे-धीरे राजा उस कथा में इतना रम गए कि रोज़ नियमित समय पर भगवान शिव की कथाएं सुनने लगे।
जब राजा ने शिव महापुराण के रूद्र संहिता, विद्येश्वर संहिता, और कोटिरुद्र संहिता के प्रसंगों को सुना, तो उनमें भक्ति का बीज अंकुरित हो गया। वे भगवान शिव के भक्त बन गए। उन्होंने अपने जीवन में अहंकार का त्याग किया, शिवमंदिरों का निर्माण कराया, साधुओं की सेवा की, और हर दिन रूद्राभिषेक व शिवनाम स्मरण करने लगे।
कालचक्र के अनुसार एक दिन राजा का अंत निकट आया। जब यमदूत उन्हें ले जाने के लिए आए, तो राजा चित्रशर्मा शिवनाम का जाप कर रहे थे। यमदूतों को शिवगणों ने रोक दिया, और कहा: “जिसने शिवपुराण सुनी है, भगवान शिव का स्मरण किया है, रूद्रनाम का जाप किया है—उसे यम का भय नहीं। वह शिवधाम का अधिकारी है।” यमदूत लौट गए और भगवान शिव के गण स्वयं राजा चित्रशर्मा की आत्मा को शिवलोक लेकर गए, जहाँ उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई।
एक दिन, महर्षि गौतम ने उसे बताया:
“रुद्राभिषेकं समाचर, शिवप्रीतिर्भविष्यति।
नश्यन्ति सर्वरोगाश्च, लभ्यते च मनोरथः॥”
(रूद्राभिषेक करो, शिव प्रसन्न होंगे। सभी रोग नष्ट होंगे और मनोकामना पूर्ण होगी।)
रूद्राभिषेक से जुड़ी अन्य पौराणिक कथाएँ
भस्मासुर की कथा (शिव पुराण, उत्तर खंड)
भस्मासुर ने शिव की तपस्या कर वरदान प्राप्त किया कि वह जिसके सिर पर हाथ रखे, वह भस्म हो जाए। शिव पर ही प्रयोग करने के लिए वह दौड़ा। तब विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर उसे नचवाया और भस्मासुर ने स्वयं ही अपने सिर पर हाथ रख लिया। इससे पहले, शिव ने रूद्राभिषेक करके अपनी रक्षा के लिए शक्ति संचित की थी।
शिव पुराण के अनुसार रूद्राभिषेक का महत्व
- पाप नाशक:
“अभिषेकं प्रकुर्वीत यावद् रुद्राक्षमालिका।
तावत् कोटिगुणं पुण्यं लभते नात्र संशयः॥”
(जितनी बार रुद्राभिषेक किया जाए, उतने करोड़ गुना पुण्य प्राप्त होता है।)
- मोक्षदायी:
शिव पुराण कहता है कि रूद्राभिषेक करने वाला “शिवसायुज्य” (शिव के साथ एकत्व) प्राप्त करता है।
- संकटनाशक:
महामृत्युंजय मंत्र के साथ अभिषेक करने से अकाल मृत्यु टलती है। शिव महापुराण स्पष्ट करता है कि रूद्राभिषेक सर्वोत्तम पूजा विधि है। यह न केवल भौतिक कष्टों को दूर करता है, बल्कि आत्मा को शिव के परम धाम तक पहुँचाता है। जैसे राजा चित्रशर्मा ने रोगमुक्ति पाई और भस्मासुर की कथा में शिव ने अपनी रक्षा की, वैसे ही प्रत्येक भक्त इस अनुष्ठान से लाभान्वित हो सकता है।
“शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द- सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै शिवायाय नमः शिवाय॥”
(उस शिव को नमस्कार, जो गौरी के मुख-कमल के सूर्य हैं, दक्ष के यज्ञ का नाश करने वाले हैं, नीलकंठ हैं और वृषभध्वज धारण करते हैं।)